जीव-विज्ञान शोध में नाभिकीय चुंबकीय अनुनाद वर्णक्रममापी (एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी) की भूमिका

अनेकसंशयोच्छेदि, परोक्षार्थस्य दर्शकम्।

सर्वस्य लोचनं शास्त्रं, यस्य नास्ति अन्धैव सः॥

(अनेक संशयो को दूर भगाता है, जो सर्वविदित नहीं है उसका दर्शन कराता है,

विज्ञान सभी के लिए आँख है और जिसके पास ये नहीं है वो अँधा है | )

पदार्थ एवं उसके अंगभूत तत्वों और प्रकाश के बीच होने वाले रोचक परस्पर क्रियाओं के कारण ही हमारा ब्रह्माण्ड एक मनोरम दृश्य उत्पन्न करता है, परन्तु हमारी चक्षुओं की सीमाएँ हमें प्रकाश की केवल एक छोटा सा हिस्सा देखने की अनुमति देती हैं, जिसे हम दृश्यमान भाग कहते हैं और ये दृश्यमान भाग, एक्स-रे, माइक्रोवेव, रेडियोवेव इत्यादि को सम्मिलित कर एक बड़े परिवार का हिस्सा है जिसे विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम (इलेक्ट्रो मैग्नेटिक स्पेक्ट्रम)  कहा जाता है। यह वर्णक्रम एक इंद्रधनुष के समान है जिसमे अनंत रंगो का समावेश है और जिसका रहस्योघाटन हम प्रत्यक्ष रूप से अपने नयनों द्वारा नहीं कर सकते हैं। पदार्थ एवं उसके अंगभूत तत्व किस प्रकार विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं यही वर्णक्रममापी (स्पेक्ट्रोस्कोपी) के मूल सिद्धांतों का आधार है। ब्रह्माण्ड का विस्तार किस रफ़्तार से हो रहा है या हमारे शरीर को बनाने वाली अविश्वसनीय रूप से छोटे अणु और परमाणु कैसे दी iखते हैं जैसे आधुनिक विज्ञान की हर प्रगति में, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, स्पेक्ट्रोस्कोपी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इस परिप्रेक्ष्य में हमे ये विदित हैं कि हमारी त्वचा के एक सूक्ष्म टुकड़े में हज़ारों कोशिकाएँ होती हैं जिनमे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, न्यूक्लिक एसिड के लाखों अणु होते हैं। ये ‘जैविक अणुओं’ अथवा उपापचय की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण प्रतिफल एक संघटित रूप में छह मूल तत्वों; कार्बन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस और सल्फर से बने होते हैं।

नाभिकीय चुंबकीय अनुनाद वर्णक्रममापी या एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी एक अत्याधुनिक तकनीक है जिसका प्रयोग कोशिकाओं के भीतर चल रही जटिल क्रियाओं के अध्ययन करने के लिए किया जाता है। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी का आरंभिक विकास ४० के दशक में परमाणुओं के चुंबकीय गुणों में जानकारी हासिल करने के लिए भौतिक शास्त्रियों द्वारा किया गया था। तत्पश्चात एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी बहुत तेजी से विकसित होकर भौतिकविदों, रसायनशास्त्रियों, भूवैज्ञानिकों, जीववैज्ञानिकों, और चिकित्सकों के लिए एक अनिवार्य तकनीक बन गयी।

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एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी के क्षेत्र में आयी तकनीकी प्रगति, इसके महत्वकारी उपयोग और सर्वव्यापी प्रकृति की पुष्टि इस बात से होती है कि भौतिकी, रसायन विज्ञान और शरीर-विज्ञान/चिकित्सा के क्षेत्र एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी के प्रयोग करने वाले बारह वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है।  हाल के वर्षों में, एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी ने अनेकों महत्वपूर्ण एवं जटिल अनुसंधानों में अभूतपूर्व सफलताएँ हासिल की हैं जो पहले काफी दुष्कर सिद्ध हुईं थी जैसे की एक जीवित कोशिका के अंदर प्रोटीन की परमाणु संकल्प संरचना बताना, मस्तिष्क का कार्यात्मक छायांकन, जैव-द्रव पदार्थ (मूत्र, रक्तोद, लार आदि का उपयोग करते हुए) में बीमारी के जैव-चिन्हों (बायोमार्कर) की पहचान, तेल की खोज, विस्फोटकों का पता लगाने, शराब की गुणवत्ता नियंत्रण इत्यादि कुछ उदहारण हैं।

Untitledएन.एम.आर स्पेक्ट्रोस्कोपी परमाणु नाभिकों का उपयोग करता है जो यूँ तो अनियमित तरीके से चक्रण (स्पिन) करते हैं परन्तु अति-प्रचण्ड चुंबकीय क्षेत्र (पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से लाख गुना अधिक शक्तिशाली !) की उपस्थिति में खुद को नियमित कर एक ही दिशा में निरपेक्षित हो जाते हैं।

इन चुम्बकीय परमाणुओं को अतितीव्र रेडियो तरंगों (मोबाइल संचार में इस्तेमाल होने वाली किरणों के समान) से विकिरणित किया जाता है और उनके बीच हो रही परस्पर प्रतिक्रिया को मापा जाता है। इस प्रतिक्रिया के माप से परमाणु नाभिकों को आस-पास के वातावरण किस प्रकार प्रभावित कर रहे हैं उसका पता चलता है। उधारणतः एक कार्बन नाभिक अगर ऑक्सीजन से अथवा हाइड्रोजन से जुड़ा हो तो वो दोनों स्थितियों के लिए अलग-अलग प्रतिक्रिया प्रदर्शित करेगा। परमाणु वातावरण में आये हर परिवर्तन के कारण विशेष एन.एम.आर संकेत प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक एफ.एम. रेडियो स्टेशन की अपनी आवृत्ति पट्ट होती है (जैसे की ९८.३  मेगाहर्ट्ज़, ९३.५ मेगाहर्ट्ज इत्यादि) उसी प्रकार विभिन्न परमाणु नाभिकों की अपनी अनूठी रेडियो आवृत्ति होती है जिसे “अनुनाद आवृत्ति” (रेजोनेंस फ्रीक्वेंसी)  कहते हैं। पृथ्वी की चुंबकीय क्षेत्र (०.२५-०.६५ माईक्रो टेसला) से लगभग २ करोड़ गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (११.७४ टेसला) में हाइड्रोजन परमाणु की अनुनाद आवृत्ति ५०० मेगाहर्ट्ज होती है जबकि कार्बन-१३ (कार्बन का एक समस्थानिक (आइसोटोप)) १२५ मेगाहर्ट्ज और नाइट्रोजन-१५ ५० मेगाहर्ट्ज पर अनुनादित होता है।

1stNMRspectraबाहरी प्रभावों की उपस्थिति में अनुनाद आवृत्ति में परिवर्तन आता है जिनका माप मेगाहर्ट्ज (१,०००००० हर्ट्ज) में न होकर अपितु हर्ट्ज में होता हैं। ये अति सूक्ष्म परिवर्तन भी माप योग्य है। आवृत्ति में आए इन छोटे परिवर्तन को ‘केमिकल शिफ्ट’ कहते है जिसके खोज सर्वप्रथम प्रो. एस. एस. धर्मात्ती ने की (प्रो. धर्मात्ती ने बाद में भारत में सबसे पहले टी.आई.एफ.आर., बम्बई में एन.एम.आर. अनुसंधान प्रारंभ किया)।

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जब तक एक परमाणु का वातावरण स्थिर बना रहता है तब तक उसका केमिकल शिफ्ट भी अपरिवर्तित रहता है। वातावरण में आया एक मामूली सा विचलन भी केमिकल शिफ्ट में परिवर्तन लाने के लिए पर्याप्त है। परमाणु नाभिक अलग वातावरण में रेडियो आवृति स्पंद (पल्स) के साथ अलग प्रतिक्रिया देते हैं और वे अपने पड़ोसी परमाणु नाभिकों के साथ परस्पर संवाद करने लगते हैंEtOH-NMR। निकटवर्ती परमाणुओं के बीच हो रहे परस्पर संवाद और उससे उत्पन्न एन.एम.आर संकेतों से अणुओं जैसे कि प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक एसिड के त्रि-आयामी संरचना का पता चलता है। त्रि-आयामी संरचना बताने वाली इस तकनीक को नाभिकीय ओवरहाउसेर वृद्धित स्पेक्ट्रोस्कोपी या नोइज़ी (NOESY) कहते हैं जिसका सर्वप्रथम मापन प्रो. अनिल कुमार द्वारा किया गया था जो वर्तमान में आई.आई.एससी., बंगलौर में कार्यरत हैं। इस विकास ने न ही वैज्ञानिकों को सिर्फ कोशिकाओं के अंदर उनके प्राकृतिक वातावरण में अणुओं के परमाणु संकल्प त्रि-आयामी संरचना का पता लगाने में मदद की अपितु उन अणुओं के भीतर गतिकी और अन्य अणुओं के साथ संबंधों का अध्ययन करने में भी सहायता प्रदान की है। यूँ तो एन.एम.आर स्पेक्ट्रोस्कोपी अपने बड़े भाई एक्स-रे स्फटिक विधा (क्रिस्टलोग्राफी) से लगभग आधी सदी छोटी है फिर भी प्रोटीन डाटा बैंक (पी.डी.बी., http://www.rcsb.org) में जमा न्यूक्लिक एसिड संरचनाओं में इसका योगदान ४०% और प्रोटीन संरचनाओं में १२% है। २००९ में पहली बार किसी जीवित कोशिका के भीतर एक प्रोटीन की आणविक संरचना का पता एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी के द्वारा लगाया गया।  आज भी एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी एकमात्र ऐसी तकनीक है जिससे जीवित कोशिका के अंदर प्रोटीन अथवा नुक्लिक एसिड के आणविक संरचना का पता लगाया जा सकता है।

आप ये सोच सकते हैं कि ठोस स्तर में इसका क्या उपयोग हो सकता है। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी ये बता सकती है कि एक विशेष प्रोटीन मलेरिया रोधी या तपेदिक दवा के लिए एक संभावित चिकित्सीय लक्ष्य हो सकता है या नहीं, रक्त में कार्बोहाइड्रेट का असामान्य स्तर एक संभावित खतरनाक ट्यूमर की मौजूदगी के निशान हैं या नहीं अथवा न समझने में आने वाली रोग्यावस्था में शरीर के भीतर के हज़ारों प्रोटीन में से कौन अपनी सही भूमिका प्रदर्शित नहीं कर रहा है। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी ऐसे यौगिकों के प्रारूप बनाने या फिर उनके अनुवीक्षण करने में अपरिहार्य भूमिका निभाता है। इसके अलावा, कई दवाओं की कार्रवाई के तरीके के खोज में भी एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी अत्यंत उपयोगी साबित हुआ है। उदाहरण के लिए, २०१० में सिंगापुर में वैज्ञानिकों ने ये पता लगाया कि ‘टैक्रॉलीमस’ या ‘एफ.के. ५०६’ नामक दवा जिसका प्रयोग अंग प्रत्यारोपण के लिए किया जाता है वो मलेरिया के ईलाज के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है क्योंकि वह प्लासमोडियम परजीवी की कोशिका की सतह पर पाये जाने वाले एक ग्रहीता प्रोटीन ‘एफ. के. बी. पी. ३५’ से बाध्यकारी सम्बन्ध बनाकर उसे मारता है। ऐसा प्लासमोडियम के ‘एफ. के. बि. पी. ३५’ प्रोटीन के आणविक संरचना, टैक्रॉलीमस’ के साथ और उसके बगैर की स्थिति की जानकारी के पश्चात ही हुआ। दोनों स्थितियों की आणविक संरचना एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा ही प्राप्त हुई।

दवाओं की खोज में एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी का सबसे अच्छा उपयोग मानव सर्वाईविन प्रोटीन के मामले में है। यह प्रोटीन कैंसर चिकित्सा के लिए एक आकर्षक लक्ष्य है क्योंकि सर्वाईविन प्रोटीन अपने निष्क्रिय रूप में कैंसर की अनश्वर कोशिकाओं को एक प्राकृतिक ढंग से नष्ट करता है। हाल ही में एबट लैबोरेट्रीज ने बहुत सारे पेप्टाइड्स (प्रोटीन के छोटे टुकड़े) की छानबीन की है जिससे उस सर्वश्रेष्ठ पेप्टाइड का पता चल सके जो सर्वाईविन प्रोटीन को पूर्णतः निष्क्रिय बना सके। इसके लिए सबसे पहले एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी के द्वारा सर्वाईविन प्रोटीन की त्रिआयामी संरचना का पता लगाया गया। सर्वाईविन प्रोटीन की संरचना से ये सुराग मिला कि संभावित दवाएं (पेप्टाइड टुकड़े) सर्वाईविन की किस हिस्से पे अपने को आबद्ध कर सकती है। उन बाध्यकारी ठिकानो पे स्थित अमीनो एसिड परिशिष्ट के केमिकल शिफ्ट में तब परिवर्तन आएगा जब वे पेप्टाइडओं से आबद्ध होंगे। आबद्ध न होने की स्थिति में उनके केमिकल शिफ्ट अचल रहेंगे। इस परिक्रिया से सर्वाईविन प्रोटीन से दृढ़ आबद्ध  होने वाले पेप्टाइडओं का अति त्रिवता से चयन करने में मदद मिलती है और वे पेप्टाइड ही संभावित कैंसर रोधी दवाओं के रूप में कार्य कर सकते हैं। इस दृष्टिकोण का प्रयोग हाल के दिनों में कई दवाओं को रूप-रेखा बनाने में इस्तेमाल किया गया है और इस प्रक्रिया को टुकड़ो पे आधारित दवा की खोज या ‘फ्रेगमेंट बेस्ड ड्रग डिस्कवरी’ (एफ. बी. दी. दी.) कहते हैं।

सर्वाईविन प्रोटीन मामला एक दिलचस्प उदहारण है जिसमे यह पता चलता है की जैविक परस्पर क्रिया के मूल अध्ययन से किस प्रकार दवाओं के संभावित आबद्ध प्रणाली की अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा प्राप्त सर्वाईविन प्रोटीन की आणविक संरचना से ये पता चला कि अपने कार्यात्मक स्थिति में उसके के दो अणु एक जोड़ी के रूप में मौजूद रहते है और उसकी संरचना एक धनुष और एक टाई के आकार के समान प्रतीत होती है। सामान्य परिस्थितियों के अंतर्गत सर्वाईविन प्रोटीन कोशिकाओं के भीतर स्मैक नामक एक पेप्टाइड के साथ आबद्ध होती है। सर्वाईविन प्रोटीन में कौन से अमीनो एसिड परिशिष्ट स्मैक से सम्बन्ध बनाने में विशेष भूमिका निभाते है इसका पता उनके केमिकल शिफ्ट में आने वाले परिवर्तनों का पता लगा के किया जाता है जब वे स्मैक पेप्टाइड से आबद्ध हों। इसके निर्धारण हेतु एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी का ही प्रयोग किया जाता है। इससे हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिन अमीनो एसिड परिशिष्टों के केमिकल शिफ्ट में अधिक परिवर्तन आता है वो ही सर्वाईविन प्रोटीन के बाध्यकारी सतह का निर्माण करते हैं।

जिस तरह एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी दवाओं की खोज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ है उसी प्रकार हाल के वर्षों में इसने मेटाबोलोमिक्स के क्षेत्र में भी अपना लोहा साबित किया  है। शरीर के भीतर के जैव तरल एवं ठोस पदार्थों (मूत्र, रक्तोद, लार कोशिका, उत्तक आदि) में पाये जाने वाले छोटे-छोटे अणुओं का तेजी से और सही पता लगाने वाली विधा को मेटाबोलोमिक्स कहते हैं। इस तरह के छोटे अणुओं का वजन आमतौर पर एक ही हाइड्रोजन परमाणु (ब्रह्मांड में सबसे छोटी परमाणु) से लगभग १५०० गुना ही होता है ! इसके विपरीत, औसत प्रोटीन हाइड्रोजन की तुलना में लगभग ३०,०००-१००,००० गुना भारी होती है! इसका प्रयोग शारीरिक या रोग उत्तेजनाओं के कारण शरीर में होने वाली गतिशील जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं के मात्रात्मक मापन के लिए किया जाता है। मेटाबोलोमिक्स का इस्तेमाल विविध क्षेत्रों में होता है जैसे कि रोग-तंत्र की जानकारी, रोग निदान / विकृतियों का पता लगाने में, पोषण हस्तक्षेप करने में और दवा विषाक्तता की जाँच में। चयापचयों (मेटाबॉलीटेस) की रूपरेखा की जानकारी रोग प्रगति और दवाओं के हस्तक्षेप के जैव-चिन्हों (बायोमार्करों) की पहचान करने में तेजी से महत्वपूर्ण हो गयी है और ये अतिरिक जानकारी प्रदान करता है जो जीनोमिक और प्रोटिओमिक तथ्यों की व्याख्या या समर्थन करने में सहायता करता है।

मेटाबोलोमिक्स में प्रयोग आने वाले अन्य तकनीकों के मुकाबले एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी ज्यादा सुविधा जनक और लाभकारी है क्योंकि ये एक मात्रात्मक, गैर-विध्वंशकारी, शरीर के साथ न छेड़-छाड़ करने वाली और न संतुलन बिगाड़ने वाली तकनीक है जिससे चयापचयों की आणविक संरचना के बारे में विस्तृत जानकारी का पता उसके भीतर हो रहे अंतर परमाणु सम्बन्धों के कारण चलता है। इसका प्रयोग चयापचयों की आणविक गतिकी और चलिष्णुता (जैसे प्रोटीन और छोटे अणुओं के बन्धन) का पता लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। यह उच्च श्रेणी की एक मजबूत और विश्वसनीय तकनीक है जिसका अनुप्रयोग मेटाबोलोमिक्स के लिए किया जाता है जहाँ प्रतिकृति का होना अनिवार्य है। इसके प्रयोग से एक साथ संरचनात्मक रूप से विविध चयापचयों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है और एक नियत समय बिंदु पर चयापचय (मेटाबोलाइट) का आशुचित्र प्रदान करता है। मायक्रो-मोलर सांद्रता तक मेटाबोलाइट की पहचान एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी द्वारा की जा सकती है।  

एक अन्य उदाहरण में २००६ में किए गए एक शोध में एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी के सहयोग से ये दिखाया गया कि अग्न्याशय (इंसुलिन बनाने वाला अंग) के एक प्रकार के कैंसर के रोगियों के रक्त में एक विशेष प्रकार की वसा फोस्फोटिडायल एनोसिटोल सामान्य से काफी कम होती है। इस मेटाबोलोमिक्स अध्ययन के लिए कैंसर रोगियों के रक्त का उपयोग किया गया था। एक सामान्य, स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में कैंसर रोगियों के रक्त में फोस्फोटिडायल एनोसिटोल के हाइड्रोजन परमाणुओं के एन.एम.आर. चिन्हों की तीव्रता काफी कम पायी गयी हालांकि उनके केमिकल शिफ्ट में कोई परिवर्तन नहीं दिखा। इस खोज का ये महत्व है कि चिकित्सक-गण उन व्यकितियों के रक्त में फोस्फोटिडायल एनोसिटोल के स्तर की निगरानी रख सकते हैं जो कैंसर उत्पन्न करने वाले रसायनों के साथ काम करते हैं अथवा जिनके परिवार में अग्नाशय के कैंसर का इतिहास रहा है। इसके पहले कि कैंसर एक अधिक खतरनाक स्थिति की ओर अग्रसर हो उसके पहले ही उसकी चिकित्सा तेजी के साथ संभव है। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी शोध के कारण ही वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में फोस्फोटिडायल एनोसिटोल को अग्नाशय के कैंसर का एक मुख्य जैव-चिन्ह (बायोमार्कर) माना जाता है।  

सामान्य जैव-द्रवों के अलावा, जैव-चिन्हों (बायोमार्करों) का पता लगाने के लिए आजकल मस्तिष्कमेरु द्रव या सी.एस.एफ. का भी परीक्षण किया जा रहा है। मस्तिष्कमेरु (सी.एस.एफ.) एक पौष्टिक द्रव है जो हमारे मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के अंदर पाया जाता है। तपेदिक के कुछ मामलों में, मस्तिष्क के बाहरी आवरण (जिसे मेनिनजेस कहते हैं) में सूजन आ जाती है जिसका जल्दी पता ना लगाया तो हालत घातक बन सकती है। इस अवस्था को दिमागी बुखार या मैनिंजाइटिस कहते हैं। एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी आधारित जैव-चिन्ह (बायोमार्कर) की खोज से पता चला है किस बीमारी की अवस्था में मस्तिष्कमेरु द्रव (सी.एस.एफ.) में एक विशेष प्रकार के रासायनिक प्रदार्थ पाये जाते हैं जिसे सायक्लोप्रोपेन (तीन कार्बन द्वारा निर्मित एक त्रिकोणीय संरचना) कहते हैं। इसी तरह एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी आधारित मेटाबोलोमिक्स से तंत्रिका तंत्र को प्रभावित अन्य बीमारियों लिए भी जैव-चिन्हों (बायोमार्करों) की खोज हुई है। इनमे अल्जाइमर रोग, हंटिंग्टन रोग, जीवाणु संबंधी (बैक्टीरियल) और विषाणु संबंधी (वायरल) मैनिंजाइटिस शामिल हैं। वर्तमान में प्रयोग हो रहे ज्ञात दवाओं में ८९% छोटे अणु हैं। इसी कारणवश जैव-चिन्ह (बायोमार्कर) की खोज का चिकित्सीय क्षमता बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान है। ये जैव-चिन्ह (बायोमार्कर) आज के कई अपराजेय रोगों की विरुद्ध अचूक हथियार सिद्ध होने की क्षमता रखते हैं। खोज किये गए जैव-चिन्हों (बायोमार्करों) में से एक छोटा सा प्रतिशत भी अगर नैदानिक परीक्षण को सफलता पूर्वक पास कर लेता है और दवाओं के रूप में बाजार में आ जाता है तो ये चिकित्सा के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी।
पिछले कुछ दशकों में एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी और अन्य तकनीकों ने कोशिका के अंदर और बाहर बड़े अणुओं के व्यवहार के विषय में विशिष्ट जानकारी प्रदान की है। एक कोशिका के विभिन्न हिस्सों और अणुओं के बीच चल रहे रोचक एवं लयबद्ध सामन्जस्य और संतुलन की जानकारी हमें इन तकनीकों के कारण ही प्राप्त होती है। बुनियादी विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे तेजी से विकास के कारण कोशिकाओं के हर घटक और अणुओं की भूमिका की एक साफ तस्वीर हमे दिखती है। यह ज्ञान नए दौर के दवाइयों के खोज के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे बीमारियों का मुकाबला एक बेहद लक्षित तरीके से किया जा सकता है। चाहे वो चमत्कारी दवाएँ हों, या निदान किट हो, या फिर टीके या उपचारों की बात हो, अब हमारे पास वे दुर्जेय शस्त्रागार है जो विगत दशकों में नहीं थे। इसी कारण अब हम अपने लिए और अधिक सुरक्षित भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

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6 thoughts on “जीव-विज्ञान शोध में नाभिकीय चुंबकीय अनुनाद वर्णक्रममापी (एन.एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी) की भूमिका

  1. अतिसुंदर अतुलनीय प्रयास नील भाई। सराहनीय। मेरी सुभकामना । भवदीय अजीत कुमार

  2. आपकी इस प्रतिभा के हम क़ायल हो गये। नमन और साधुवाद

  3. सर बहुत ही सारगर्भित एवं व्याख्यात्मक वर्णन है।
    धन्यवाद

  4. धन्यावाद! प्र यास औऱ सहा यता के लिए।

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